आधुनिकता की चकाचौंध में खो गई खराद, संकट के दौर से गुजर रहा खराद व्यवसाय से जुड़े कारीगरों का व्यवसाय

द्वारिका सेमवाल, बड़कोट (उत्तरकाशी)

नदी के किनारे बने घराटों की आवाज आज बंद पड़ी है। इन घराटों में गेहूं व अन्य अनाज पिसाई के साथ-साथ घराट व्यावसाय से जुड़े कारीगर लोग घराटों में खराद लगने का काम किया करते थे।

लेकिन, आज हमारे देखते ही देखते इन घराटों में लगने वाली खराद आधुनिकता के इस दौर में कहीं गुम हो गई है। घराटों की बंद पड़ गई आवाज के साथ ही इस खराद व्यवसाय से जुड़े कारीगरों का व्यवसाय भी ठप्प पड़ गया । जिससे अब घराटों में लगने वाली खराद भी अंतिम सांसें गिन रही है।

दुनिया के हर हिस्से में जहां लकड़ी व मिट्टी पर उकेरे गए विभन्न पैकर मिले हैं, वहीं स्थानीय कारीगरों द्वारा ‘खराद’ से लकड़ी पर उकेरी गई अनेकों आकृतियों से युक्त वर्तन बनाने की कला भी एक समय में कालजयी रही है।

उत्तरकाशी जिले की रवांई घाटी के खनेड़ा गांव के अनुसूचित जाति के लोग खरादी नामक स्थान में बने घराटों में प्राचीनकाल से खराद लगाते आ रहे हैं। खराद के नाम से ही इस स्थान का नाम खरादी पड़ा, लेकिन अब आधुनिकता के इस दौर में खराद का कारोबार समाप्ति की कगार पर है।

रवाई घाटी के बड़कोट नगर से 10 किमी दूर यमुनोत्री राष्ट्रीय राजमार्ग पर स्थित खरादी क़स्बा पूर्व काल में लकड़ी पर लगाई जाने वाली ‘खराद’ के लिए जाना जाता था, जहां खनेड़ा गांव के अनुसूचित जाति के लोगों के यमुना नदी के किनारे घराट (पनचक्की) लगे हुए थे, वहीं उन घराटों में यह लोग लकड़ी पर खराद लगा कर परोठी, परोठा, ढोलक, डमरू, कटोरा, हुक्का, तकली आदि रोजमर्रा के जीवन में प्रयोग होने वाली वस्तुओं को तैयार करते थे और अपनी आजीविका चलाया करते थे।

कारीगर लोग खराद से लकड़ी पर बेहतरीन पैकर उकेरने के साथ ही बर्तनों को उपयोग के साथ-साथ आकर्षक भी बनाया करते थे। धीरे धीरे जैसे आधुनिकता का दौर हावी हुआ, वैसे ही खराद द्वारा बनाये जाने वाले लकड़ी के बर्तनों का बाजार की कम होता गया। लकड़ी के इन कारीगरों के व्यवसाय में काफी कमी आने लगी। साथ ही कड़े वन कानूनों के चलते वनों पर लगे प्रतिबंध से लकड़ी के अभाव से खराद आज बंद हो गई है। करीब 30 वर्ष पहले के स्माय में खरादी में खराद के युक्त विभिन्न प्रकार के बर्तनों की बिक्री अपने सबाब पर थी और इसके बाद लगातार कमी आती गई और आज यह कमी साफ नजर भी आ रही है।

खरादी में पहले तीन घराटों में भारी मात्रा में खराद लगाई जाती थी, जबकि आज काफी कम मात्रा में। खनेड़ा गांव निवासी लुगथ्या भी खराद का काम करता है। उसका कहना है कि वनों से लकड़ी लाने पर प्रतिबंध है। इसके चलते खराद बंद हो गया है। वह आज खराद को बचाने के लिए। सरकारी संरक्षण की राह ताक रहा है। रवाई घाटी क्षेत्र में कई लोग खराद के व्यावसाय से जुड़े हैं, जिनमे कई कारीगरों को लकड़ी से बनने वाले मकान में लकड़ी पर एवं पत्थरों पर बेहतरीन नकाशी करने की महारत हासिल है।

बड़कोट तहसील के थान गांव निवासी सुमन प्रसाद डिमरी का कहना है कि खरादी में पहले खनेड़ा गांव निवासी कंसरू, माड़िया व झुसलिया आदि के घराट हुआ करते थे। वे इन्हीं घराटों में बड़ी मात्रा में ‘खराद’ लगाया करते थे, जो अब आधुनिकता के चलते और कड़े वन कानूनों से लकड़ी के अभाव में बंद हो गया है। खराद को जीवित रखने के लिए इस व्यवसाय से जुड़े लोगों को प्रोत्साहित करने के लिए शासन-प्रशासन स्तर पर पहल की जानी चाहिए।
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ये वस्तुएं बनाई जाती थी खराद से

– छांछ (मट्ठा) लगाने के लिए- परोठा
– दही जमाने के लिए – परोठी
– मक्खन रखने आदि के लिए- कटोरा, कटोरी
– संगीत व मनोरंजन के लिये- ढोलक,
– घड़ेला लगाने के लिए- डमरू
– तंबाकू पीने के लिए- हुक्का
– ऊन कातने के लिए- तकली

उत्तराखंड एक्सप्रेस न्यूज़ 

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